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बिलासपुर:
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सरगुजा जिले के पूर्व पटवारी परमानंद राजपूत को रिश्वतखोरी और ठगी के आरोपों से बरी कर दिया है। न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की एकलपीठ ने 20 अगस्त 2002 को सत्र न्यायालय अंबिकापुर द्वारा सुनाई गई सजा को निरस्त करते हुए कहा कि अभियोजन यह साबित करने में पूरी तरह विफल रहा कि आरोपित ने रिश्वत मांगी या स्वीकार की थी।
मामला क्या था
घटना वर्ष 1999 की है। ग्राम पंचायत अमरपुर के तत्कालीन सरपंच रामप्रसाद ने शिकायत की थी कि उस समय पदस्थ पटवारी परमानंद राजपूत ने ग्रामीणों से सरकारी जमीन का पट्टा दिलाने के नाम पर पैसे लिए, लेकिन न तो पट्टा जारी किया गया और न ही रकम लौटाई गई। इस पर पुलिस ने उसके खिलाफ धारा 420 (धोखाधड़ी) और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 के तहत अपराध दर्ज किया।
2002 में विशेष न्यायालय अंबिकापुर ने परमानंद को दोषी पाते हुए तीन-तीन साल की सजा और 3000-3000 रुपये का जुर्माना लगाया था। दोनों सजाएं साथ-साथ चलनी थीं। इस फैसले को चुनौती देते हुए आरोपी ने हाई कोर्ट में अपील दायर की थी।
बचाव पक्ष की दलील
अभियुक्त की ओर से अधिवक्ता एन.के. मालवीय ने तर्क दिया कि पूरे रिकॉर्ड में कहीं भी यह प्रमाण नहीं है कि पटवारी ने किसी से रिश्वत मांगी या स्वीकार की। न तो कोई रकम बरामद हुई, न ही किसी ट्रैप कार्रवाई का आयोजन किया गया।
ग्रामीणों ने कब, कहां और किसके सामने पैसा दिया, इसका कोई ठोस विवरण नहीं मिला।
इसके अलावा जमीन का पट्टा जारी करने का अधिकार पटवारी का नहीं बल्कि तहसीलदार का होता है, इसलिए आरोपी का इस कार्य से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। कई गवाहों ने कहा कि उन्होंने स्थानीय विधायक के दबाव में पुलिस को बयान दिए थे।
अभियोजन पक्ष का पक्ष
राज्य सरकार की ओर से अधिवक्ता ने कहा कि आरोपी ने ग्रामीणों से जमीन पट्टा दिलाने के नाम पर रुपये मांगे और राशि लेने के बाद भी जमीन नहीं दी, जिससे उसका अपराध साबित होता है।
हाईकोर्ट का अवलोकन -साक्ष्यों में गंभीर खामियां
अदालत ने 18 गवाहों के बयान और दस्तावेजी साक्ष्यों का गहराई से विश्लेषण किया। पाया गया कि अधिकांश गवाहों ने अदालत में अपने बयान बदल दिए या यह कहा कि उन्होंने किसी और के कहने पर बयान दिए थे। किसी भी गवाह ने यह नहीं बताया कि आरोपी के पास से कोई रकम बरामद हुई। जांच एक सब-इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी ने की थी, जबकि कानून के अनुसार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत जांच डीएसपी या उससे उच्च अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए। यह प्रक्रिया भी अवैध पाई गई।
अदालत ने यह भी कहा कि चूंकि पट्टा जारी करने का अधिकार तहसीलदार के पास था, इसलिए पटवारी को इस कार्य में प्रत्यक्ष लाभ या शक्ति प्राप्त नहीं थी।
न्यायमूर्ति राजपूत ने कहा कि रिश्वत के मामलों में “डिमांड और एक्सेप्टेंस” (मांग और स्वीकारोक्ति) का प्रमाण आवश्यक होता है, जो इस मामले में पूरी तरह अनुपस्थित था।
हाईकोर्ट ने किया बरी
अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने साक्ष्यों की सही व्याख्या नहीं की और अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि दी। इसलिए सत्र न्यायालय का निर्णय रद्द किया जाता है। परमानंद राजपूत को सभी आरोपों से बरी किया गया। न्यायमूर्ति राजपूत ने कहा कि अभियोजन अपने आरोप संदेह से परे सिद्ध नहीं कर सका, इसलिए सजा टिक नहीं सकती। इस फैसले से 23 साल बाद पूर्व पटवारी को बड़ी राहत मिली।
कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि वह पहले से जमानत पर था, इसलिए उसके जमानती बंधपत्र निरस्त किए जाते हैं और उसे किसी कानूनी कार्रवाई का सामना नहीं करना होगा।
