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बिलासपुर:
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में एक महत्वपूर्ण जनहित याचिका (PIL) दाखिल की गई है, जिसमें राज्य में लागू भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है। इस याचिका को अधिवक्ता अमन सक्सेना ने दाखिल किया है, और उन्होंने अपनी याचिका पर खुद ही पैरवी की है, जिसे petition in person कहा जाता है।
हाई कोर्ट की गंभीरता
जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लिया। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस रविंद्र अग्रवाल की डिवीजन बेंच ने राज्य शासन से पूछा है कि प्रदेश में कितने डिटेंशन सेंटर संचालित हो रहे हैं और उनकी वर्तमान स्थिति क्या है। इसके साथ ही, कोर्ट ने यह भी जानना चाहा कि भिक्षावृत्ति अधिनियम के तहत अब तक क्या कार्रवाई की गई है। राज्य सरकार को इस संबंध में शपथ पत्र दाखिल कर दो सप्ताह के भीतर जवाब प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया है।
याचिकाकर्ता का पक्ष
अधिवक्ता अमन सक्सेना ने अपने मामले की पैरवी करते हुए कहा कि राज्य में लागू भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करना आवश्यक है। उन्होंने अदालत को बताया कि इस अधिनियम में ऐसी शर्तें, नियम और मापदंड तय किए गए हैं, जिनसे इस बात की आशंका हमेशा बनी रहती है कि इसका दुरुपयोग कभी भी और कहीं भी हो सकता है।
चीफ जस्टिस सिन्हा ने जब पूछा कि क्या इस एक्ट का दुरुपयोग किया जा रहा है, तो अधिवक्ता सक्सेना ने कहा कि इस कानून की संरचना और शर्तें ऐसी हैं कि इसका दुरुपयोग संभावित है। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर कानून गलत स्वरूप में बनाया गया है, तो इसे असंवैधानिक कहा जा सकता है, और इसलिए इसे रद्द किया जाना चाहिए।
भिक्षावृत्ति पर राज्य की स्थिति
याचिकाकर्ता ने कोर्ट को केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों की जानकारी भी दी। उन्होंने बताया कि 2011 की जनगणना के आधार पर छत्तीसगढ़ में 8,000 भिक्षुओं का उल्लेख किया गया था। चूंकि 2011 के बाद से नई जनगणना नहीं हुई है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि प्रदेश में भिक्षुओं की संख्या में वृद्धि हुई है।
अधिनियम की आलोचना
याचिकाकर्ता अधिवक्ता ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि प्रदेश में लागू यह अधिनियम भिक्षावृत्ति को अपराध की श्रेणी में मानता है। गरीब और बेसहारा लोग, जिनके पास खाने के लिए कुछ नहीं है, अगर पेट भरने के लिए भीख मांगते हैं, तो उन्हें भी इस अधिनियम के तहत मुजरिम माना जा सकता है।
उन्होंने यह भी आशंका जताई कि इस विधान के तहत पुलिस किसी भी व्यक्ति को संदेह के आधार पर डिटेन कर डिटेंशन सेंटर भेज सकती है। याचिकाकर्ता ने अदालत को बताया कि यह अधिनियम मध्य प्रदेश में 1973 में पारित किया गया था, जिसे छत्तीसगढ़ सरकार ने बिना किसी बदलाव के उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।
हाई कोर्ट का आदेश
इस याचिका पर विचार करते हुए छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने राज्य शासन से दो सप्ताह के भीतर शपथ पत्र के साथ जवाब प्रस्तुत करने का आदेश दिया है, जिसमें प्रदेश में संचालित डिटेंशन सेंटरों की स्थिति और भिक्षावृत्ति अधिनियम के तहत की गई कार्रवाई की जानकारी शामिल हो।
